जेविले ते संत मागे उष्टावळी। अवघ्या पत्रावळी करुनी झाडा॥
सोंवळ्या ओंवळ्या राहिलो निराळा। पासूनि सकळा अवघ्या दूरी॥
परें परतें मज न लगे सांगावें। हें तो बरे देवे शिकविले॥
दुसर्याते आम्ही नाही आतळत। जाणोनि संकेत उभा असे॥
येथे काही कोणी न धरावी शंका। मज चाड एका भोजनाची॥
लांचावला तुका मारितसे झड। पुरविले कोड नारायणे॥
जो संत मुझसे पहले खा चुके हैं उनके पत्तलों को झटक कर जो अन्न मिला वही मैंने खाया।
हर प्रकार की छूताछूत से मैं अलग हो गया हूँ।
परावाणी से भी परे जो तत्त्व है वह अब मुझसे ना कहें क्योंकि देवने मुझे उत्तम सीख दी है।मुझे केवल अब एकही भोजन की इच्छा है।
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