समचरण दृष्टि विटेवरी साजिरी। तेथे माझी हरी वृत्ती राहो।
आणिक न लगे मायिक पदार्थ। तेथे माझे आर्त नको देवा॥
ब्रह्मादिक पदे दु:खाची शिराणी। तेथे दुश्चित झणी जडो देसी॥
तुका म्हणे त्याचे कळले आम्हा वर्म। जे जे कर्मधर्म नाशवंत॥
जिसके चरण और दृष्टि सम, यानी एक ही पटल पर हों, ऐसे (विठ्ठल) पर, हे हरी, मेरी वृत्ती स्थिर रहे।
इसके सिवा जो मायाग्रस्त पदार्थ हैं वहाँ मेरा मन,
मेरी चाह, हे देव, न रहे।
ब्रह्मादि जो पद हैं वे दु:ख के स्थान हैं। वहाँ मेरा
मन भूलकर भी न जाए।
तुका कहे वो वर्म हमें समझ में आ गया है के जो
कर्मधर्म हैं वह मूलत: नाशवंत हैं।
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