Wednesday, 29 August 2012

हरिच्या जागरणा। जाता का रे नये मना॥


हरिच्या जागरणा। जाता का रे नये मना॥
कोठे पाहासील तुटी। आयुष्य वेचे फुकासाठी॥
ज्यांची तुज गुंती। ते तो मोकलिती अंती॥
तुका म्हणे बरा। लाभ काय तो विचारा॥

अरे! हरी के जागरण में क्यों सहभागी नहीं होते तुम? ऐसा मन क्यों नहीं है तुम्हारा?
ये सारी उम्र मुफ्त में ही चली जाएगी क्या? जिनमें तुम अपने आप को खोए हो वह सारे तुम्हारी मृत्यु आते ही छोड देंगे। तुका कहे पुछो के सर्वश्रेष्ठ लाभ किसमें है?

Sunday, 26 August 2012

अवगुणांचे हाती। आहे अवघीच फजीती॥


अवगुणांचे हाती। आहे अवघीच फजीती॥
नाही पात्रासवे चाड। प्रमाण ते फिके गोड॥
विष तांब्या वाटी। भरली लाऊ नये होटी॥
तुका म्हणे भाव। शुद्ध बरा सोंग वाव॥

अवगुणों के हातों ही हम फँस जाते हैं।
धातू अच्छा है या बुरा ये देखने की आवश्यकता नाहीं, उसके अंदर का रस अच्छा है या त्याज्य है यह महत्त्वपूर्ण है।
एक तांबे की कटोरी विष से भरी है। तांबा अच्छा हो तब भी उसमें रखे विष को होठों से नहीं लगाना चाहिए।
तुका कहे भाव शुद्ध हो यही अच्छा है, स्वाँग रचना योग्य नहीं।  

Friday, 24 August 2012

देवाच्या प्रसादे करा रे भोजन। व्हाल कोण कोण अधिकारी ते॥


देवाच्या प्रसादे करा रे भोजन। व्हाल कोण कोण अधिकारी ते॥
ब्रह्मादिकांसि हे दुर्लभ उच्छिष्ट। नका मानू वीट ब्रह्मरसी॥
अवघियापुरते वोसंडले पात्र। अधिकार सर्वत्र आहे येथे॥
इच्छादानी येथे ओळला समर्थ। अवघेचि आर्त पुरवितो॥
सरे येथे ऐसे नाही कदाकाळी। पुढती वाटे कवळी घ्यावी ऐसे॥
तुका म्हणे पाक लक्षुमीच्या हाते। कामारी सांगाते निरुपम॥


जो अधिकारी हैं ऐसोने देव का प्रसाद सेवन करना चाहिए।
ये जूठन ब्रह्मादिकों को भी नहीं प्राप्त होती इसलिए इस दुर्लभ ब्रह्मरस सेवन को परेशानी ना समझें।
ये रस उमड उमड कर बह रहा है और इसे ग्रहण करने का अधिकार सबको बराबर का है।
इसे देनेवाला दाता ऐसा है की इसकी जिसे इच्छा हो उसे ये प्राप्त हो जाता है फिर किसी की इच्छा अपूर्ण रहे ऐसा नहीं हो सकता।
ये रस ऐसा है की कभी समाप्त नहीं होता और एक बार इसका सेवन करें तो बार बार सेवन करने की इच्छा होती है।
तुका कहे ये अन्न लक्ष्मी माता के हातों से ग्रहण करना चाहिए। 

Thursday, 23 August 2012

जेविले ते संत मागे उष्टावळी। अवघ्या पत्रावळी करुनी झाडा॥


जेविले ते संत मागे उष्टावळी। अवघ्या पत्रावळी करुनी झाडा॥
सोंवळ्या ओंवळ्या राहिलो निराळा। पासूनि सकळा अवघ्या दूरी॥
परें परतें मज न लगे सांगावें। हें तो बरे देवे शिकविले॥
दुसर्‍याते आम्ही नाही आतळत। जाणोनि संकेत उभा असे॥
येथे काही कोणी न धरावी शंका। मज चाड एका भोजनाची॥
लांचावला तुका मारितसे झड। पुरविले कोड नारायणे॥

जो संत मुझसे पहले खा चुके हैं उनके पत्तलों को झटक कर जो अन्न मिला वही मैंने खाया।
हर प्रकार की छूताछूत से मैं अलग हो गया हूँ।
परावाणी से भी परे जो तत्त्व है वह अब मुझसे ना कहें क्योंकि देवने मुझे उत्तम सीख दी है।

हम कोई दूसरा मानते ही नहीं, यही हमारी पहचान है।

इस पर कोई शंका ना करे।
मुझे केवल अब एकही भोजन की इच्छा है।

उस भोजन के लिए ललचाया तुका वह मिलते ही उसपर झपटा और इसे देख नारायण मेरी इच्छा पूर्ण करते हैं।

Tuesday, 21 August 2012

पुढे गेले त्याचा शोधीत मारग। चला जाऊ माग घेत आम्ही॥


पुढे गेले त्याचा शोधीत मारग। चला जाऊ माग घेत आम्ही॥
वंदूं चरणरज सेवूं उष्टावळी। पूर्वकर्मा होळी करुनीया॥
अमुप हे गाठी बांधू भांडवल। अनाथा विठ्ठल आम्हा जोगा॥
अवघे होती लाभ एका या चिंतनें। नामसंकीर्तनें गोविंदाच्या॥
जन्ममरणाच्या खुंटतील खेपा। होईल हा सोपा सिद्ध पंथ॥
तुका म्हणे घालू जीवपणा चिरा। जाऊ त्या माहेरा निजाचिया॥

जो आगे गया उसका मार्ग ढूँढते हम चलें।
उसके पैरों की चरण धूल और जूठन का सेवन करें।
हम अनाथों के लिए विठ्ठल है इसलिए यह पूंजी हमें मिली है।
क्योंकी इसी गोविंद के चिंतन से, नामसंकीर्तन से संपूर्ण लाभ होता है।
और जन्म मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है और हम सिद्धि को प्राप्त होते हैं।
तुका कहे, चलो अपने जीवन पर पत्थर रखकर अपने मायके जाएँ सुखकी नींद सोने॥

सुखे वोळंबा दावी गोहा। माझे दु:ख नेणा पाहा॥


सुखे वोळंबा दावी गोहा। माझे दु:ख नेणा पाहा॥
आवडीचा मारिला वेडा। होय होय कैसा म्हणे भिडा॥
अखंड मज पोटाची व्यथा। दुधभात साकर तूप पथ्या॥
दो प्रहरा मज लहरी येती। शुद्ध नाही पडे सुपत्ती॥
नीज नये खाली घाली फुले। जवळी न साहती मुले॥
अंगी चंदन लाविते भाळी। सदा शूळ माझे कपाळी॥
निपट मज न चले अन्न। पायली गहू सांजा तीन॥
गेले वारी तुम्ही आणिली साकर। सात दिवस गेली साडेदाहा शेर॥
हाड गळोनि आले मांस। माझे दु:ख तुम्हा नेणवे कैसे॥
तुका म्हणे जिता गाढव केला। मेलियावरि नरका नेला॥


एक स्त्री है तो सुखी किंतु अपने पती के सामने नाटक करती है।
कहती है कि आप मेरा दु:ख कहाँ समझते हैं, नाही देखते हैं।
पती उसके पीछा दीवाना है, डर के मारे उसकी हर बात पर हाँ, हाँ कहता है।
आप सुनते नहीं मेरे पेट में सदैव दर्द रहता है – दूध, चाँवल, चीनी और घी ही मुझे पुसाते हैं।
दोप्रहर को मुझे नींद सी आ जाती है और मैं बिस्तर में बेहोश हो जाती हूँ।
रोज मैं अपने शरीर पर और भाल पर चंदन का लेप करती हूँ।
मुझे नींद नहीं आती है इसलिए बिस्तर में फूल फैला देती हूँ।
देखते नहीं, मेरी हड्डीयाँ गल गई हैं और केवल मांस ही रह गया है फिर भी मेरा दु:ख आप नहीं देखते।
आपने पिछली बार साडेदस सेर चीनी लाई थी वह सात दिन में खत्म हो गई।
आप तो जानते हैं की मुझे अन्न बिल्कुल नहीं चलता बस तीन बार मिलकर थोडासा गेहूं का शीरा लगता है केवल ।
तुका कहे जिसका जीतेजी गधा हो गया हो वह मरने पर नर्क ही जाएगा।

Monday, 20 August 2012

पावले पावले तुझे आम्हा सर्व। दुजा नको भाव होऊ देऊ ।


पावले पावले तुझे आम्हा सर्व। दुजा नको भाव होऊ देऊ ।
जेथे जेथे देखे तुझीच पाउले। त्रिभुवन संचले विठ्ठला गा।
भेदाभेद मते भ्रमाचे संवाद। आम्हा नको वाद त्याशी देऊ।
तुका म्हणे अणु तुजविण नाही। नभाहुनि पाही वाड आहे।

हे विठ्ठल। आपका जो था हमे प्राप्त हुआ है। अब कोई दूसरा भाव ना देना।
जहाँ देखूं वहाँ आपके पदचिन्ह हैं। सारा त्रिलोक आपमें संचित है।
भेद,अभेद के संवाद भ्रम से भरे हैं। हमें उस विवाद में ना पडने दें।
तुका कहे,आपके स्वरूप से अणु भिन्न नहीं। नभ से भी व्यापक आपका स्वरूप है। 

अंतरींची घेतो गोडी। पाहे जोडी भावाची। देव सोयरा सोयरा।


अंतरींची घेतो गोडी। पाहे जोडी भावाची। देव सोयरा सोयरा। देव सोयरा दीनाचा।
आपुल्याच वैभवे। शृंगारावे निर्मळे। तुका म्हणे जेवी सवे। प्रेम द्यावे प्रीतीचे।।

अपने अंतर की मिठास वो ग्रहण करता है। उसमें बसे भाव का संचय कितना है उसे परखता है।
देव हमारा संबंधी है। अपने वैभव से हमारा निर्मल शृंगार करता है ।
तुका कहे वह हमारे साथ उपभोग लेता है और हमे बदले में उसकी प्रीती देता है।

Wednesday, 15 August 2012

आपुलिया हिता जो असे जागता। धन्य मातापिता तयाचिया।


आपुलिया हिता जो असे जागता। धन्य मातापिता तयाचिया।
कुळी कन्यापुत्र होती जी सात्विक। तयाचा हरिख वाटे देवा।
गीता भागवत करिती श्रवण। अखंड चिंतन विठोबाचे।
तुका म्हणे मज घडो त्याची सेवा। तरी माझ्या दैवा पार नाही॥

जो अपने हित के प्रति जागृक है उसके मातापिता धन्य हैँ।
जिस कुल में सात्विक कन्या पुत्र जन्म लेते हैं उस कुल के विषय में देव हर्षोल्लसित होते हैं।

जो निरंतर गीता तथा भागवत का श्रवण करते हैं और जो अखंड विठोबा का स्मरण करते हैं -

तुका कहे ऐसों की सेवा मैं कर पाऊँ तो मेरा दैव अतुलनीय हो जाए।

सावध झालो, सावध झालो। हरिच्या आलो जागरणा।


सावध झालो, सावध झालो। हरिच्या आलो जागरणा।
जेथे वैष्णवांचे भार। जयजयकार गर्जतसे।
पळोनियां गेली झोप। होते पाप आड ते।
तुका म्हणे तया ठाया। वोल छाया कृपेची॥

मैं सावधान हुआ, मैं सावधान हुआ। हरि के जागरण में मैं आया।

जहाँ वैष्णवों का समुदाय एकत्रित हुआ है वहाँ उस (हरि की) जयजयकार हो रही है।

जिसके पीछे पाप छिप कर बैठा था वह मेरी निद्रा अब भाग गई।

तुका कहे उस जगह कृपाकी छाया रहती है।

नये जरी तुज मधुर उत्तर। दिधला सुस्वर नाही देवे।


नये जरी तुज मधुर उत्तर। दिधला सुस्वर नाही देवे।
नाही तयाविण भुकेला विठ्ठल। येईल तैसा बोल रामकृष्ण।
देवापाशी मागे आवडीची भक्ती। विश्वासीशी प्रीति भावबळे।
तुका म्हणे मना सांगतो विचार। धरावा निर्धार दिसेंदिस।

हो सकता है की मिधुर स्वर में तुम्हे गाना मुमकिन ना हो। हो सकता है की ऐसा सुस्वर तुम्हे देव ने दिया ना हो।
परंतु विठ्ठल इसका भूका नहीं। जैसा कह सको, कहो रामकृष्ण।
उस देव से, विश्वास से, प्रीती से, माँगो अपने पसंद की भक्ती।
तुका कहे हे मन, तुम्हे एक विचार कहता हूँ – इसी निर्धार को हर दिन जतन करना॥

समचरण दृष्टि विटेवरी साजिरी। तेथे माझी हरी वृत्ती राहो।


समचरण दृष्टि विटेवरी साजिरी। तेथे माझी हरी वृत्ती राहो।
आणिक न लगे मायिक पदार्थ। तेथे माझे आर्त नको देवा॥
ब्रह्मादिक पदे दु:खाची शिराणी। तेथे दुश्चित झणी जडो देसी॥
तुका म्हणे त्याचे कळले आम्हा वर्म। जे जे कर्मधर्म नाशवंत॥


जिसके चरण और दृष्टि सम, यानी एक ही पटल पर हों, ऐसे (विठ्ठल) पर, हे हरी, मेरी वृत्ती स्थिर रहे।

इसके सिवा जो मायाग्रस्त पदार्थ हैं वहाँ मेरा मन, मेरी चाह, हे देव, न रहे।

ब्रह्मादि जो पद हैं वे दु:ख के स्थान हैं। वहाँ मेरा मन भूलकर भी न जाए।

तुका कहे वो वर्म हमें समझ में आ गया है के जो कर्मधर्म हैं वह मूलत: नाशवंत हैं।


Sunday, 12 August 2012

जैसें समुद्री लवण न पडे। तंव वेगळें अल्प आवडे। मग होय सिंधूचि एवढें। मिळे तेव्हां॥

जैसें समुद्री लवण न पडे। तंव वेगळें अल्प आवडे। मग होय सिंधूचि एवढें। मिळे तेव्हां॥

समुद्रात लवण म्हणजे मीठ पडत नाही तोपर्यंत ते मीठ एवढेसे वाटते. मात्र तेच आणि तेवढेसेच मीठ जेव्हा समुद्रात, सिंधूत पडते, तेव्हा ते
समुद्राएवढे होते. मोठे आणि लहान याबाबत आपल्यात खूप संभ्रम असतो. आपल्यापेक्षा मोठा नेमका कोण? लहान कोण? एकीकडे अमेरिका आणि दुसरीकडे चीन यांमध्ये आपण नेमके मोठे की लहान? त्याचबरोबर एखाद्यासारखे होणे वाईट की चांगले? अनुकरणानेच जर आपण शिकत असू तर एखाद्याचे अनुकरण करणे वाईट कसे असेल? अनुकरण हे अंधानुकरण नेमके कधी होते? अनुकरणाची सांस्कृतिक गरज असते काय? एखाद्या
संस्कृतीत अनुकरण करण्याला प्रोत्साहन दिले जाते तर एखाद्या संस्कृतीत अनुकरणाला वाईट मानले जाते? यात माध्यमांचा नेमका वापर कसा होतो?

आता वंदू सकळ सभा। जये सभेसी मुक्ति सुल्लभा। जेथें स्वयें जगदीश उभा। तिष्ठतु भरें॥

आता वंदू सकळ सभा। जये सभेसी मुक्ति सुल्लभा। जेथें स्वयें जगदीश उभा। तिष्ठतु भरें॥

सभा करणे, एकत्र येऊन चर्चा करणे, अनुभवांचे आदानप्रदान करणे यांमुळे वास्तवाचे भान अधिक प्रगल्भ होते. उपनिषद म्हणजे जवळ बसणे. सगळेच उपनिषद जिवनानुभव सांगतात. एखादा जीवनानुभव जेव्हा सार्वत्रिक होतो, सर्वसामान्यांना पडलेल्या प्रश्नांचे उत्तर जेव्हा सापडते आणि या अनुभवाचा, उत्तरांचा जेव्हा विचार स्पष्ट होतो, त्या प्रश्नोत्तरांची मांडणी स्पष्ट होते तेव्हा आपल्यात संरचनात्मक बदल घडतो. यातून उपनिषद घडते. कल्पना अशी आहे की प्रत्येकाचे आयुष्य हे एक उपनिषद आहे. आपल्यापुरते आपल्याला काही उत्तर मिळाले आहे जे आपण जगतो आहोत. जीवन जगत असतांना प्रत्येकवेळी चर्चा, विचारविनिमय करून निर्णय घेणे आणि कृती करणे शक्य नाही. त्यामुळे एकीकडे जीवन जगायचे आणि दुसरीकडे वेळातवेळ काढून आपण घेतलेल्या निर्णयांचा उहापोह इतरांबरोबर करायचा. एखादे उत्तर योग्य वाटते तर एखादे अयोग्य. यात चूक अथवा बरोबर काहीच नसते कारण अनेकविध कारणांच्या प्रभावाखाली आपण आपले निर्णय घेत असतो. त्या त्या वेळी निर्णय काय झाला व कृती काय झाली आणि अनुभव काय आला हे सतत पडताळून पाहायचे असते. या सगळ्यासाठी सभा आवश्यक आहे.
समर्थांची ही ओवी आहे. मुक्तीसाठी एकत्र आलेल्यांची म्हणजेच अध्यात्म चर्चा करण्यासाठी ही सभा एकत्र आली आहे. अशा सभेत जगदीश स्वत: हजर असतो. जगत+ईश. सर्व जग पाहणारा तो जगदीश. असा हा जगदीश तिष्ठत उभा असतो. संस्कृतमध्ये तिष्ठणे म्हणजे उभे राहणे. मात्र मराठी मध्ये तिष्ठणे म्हणजे खोळंबणे, वाट पाहत राहणे. येथे संस्कृतातला अर्थ अधिक योग्य वाटतो.
भक्तिचा अभ्यास करण्यासाठी जे मुमुक्षत्व लागते ते अशा सभांतून सहभागी होऊन मिळते. सभांतून आपण मुनि होतो. मननात मुनि:। जे मनन करतात ते मुनि. अर्थात अध्यात्म हा श्रद्धेच विषय नसून बुद्धीचा विषय आहे.