Monday 13 May 2013

Bulleshah says पत्तियां लिखां मैं शाम नूं मैनूं पिया नजर ना आये।




पत्तियां लिखां मैं शाम नूं मैनूं पिया नजर ना आये।
आंगन बना डरावना कित विधि रैण विहावे।
पांधे पंडित जगत के मैं पूछ रही आं सारे।
पोथी, वेद क्या दोस है जो उलटे भाग हमारे।
भाइया वे जोतिषिया, इक सच्ची बात भी कहियो।
जे मैं हीनी भाग दी, तुम चुप ना रहियो।
भज सक्का ते भज्ज जावां, सभ तज के करां फकीरी।
पर दुलडी, तिलडी, चौलडी, है गल विच प्रेम जंजीरी।
नींद गई किस देस नुं, ओह भी बैरन मेरी।
मत सुफने विच आन मिले, ओह नींदर केह्डी।
रो रो जीउ बलांदिया गम करदी आं दूणा।
नैनों नीर भी ना चल्लण किस कीता टूणा।
साजन तुमरी प्रीत से मुझको हाथ की आया।
छतर सूलां सिर झालिया पर तेरा पंथ न पाया।
प्रेम नगर चल वस्सिये जित्त्थे वस्से कंत हमारा।
बुल्ल्हिआ शौह तों मंगनी हां जे दे नजारा।




प्रियतम के वियोग से पागल विरहिणी की व्यथा और मानसिक अवस्था क बडा ही स्वाभाविक और मर्मिक चित्रण करने वाली इस काफी में कहा गया है कि मैं हर दिन प्रतीक्षा करते-करते सांझ को अपने प्रिय को पत्र लिखती हूँ, लेकिन वह सलोना पिया दिखाई ही नहीं देता। मेरे लिए तो मेरे घर का आँगन भी डरावना बन गया है, भला मैं अकेली ही रात कैसे गुजारूं।
पत्र लिखकर हृदय से लगा लेती हूँ और आँखों में आँसूं भर-भर आते हैं। विरह की अग्नि मे मैं जल रही हूँ और उस अग्नि में मेरा हृदय फूँका जा रहा है। संसार-भर के पंडितों-ज्ञानियों से मैं पूछ रही हूँ कि अरे कोई मेरा दोष तो बता दो या मेरा भाग्य ही उलटा है।
हे ज्योतिषी भाई, तुम मेरी भाग्य-रेखा बताकर सच्ची-सच्ची बात बता दो। अगर मैं सचमुच हीनभाग्य हूँ, तो चुप मत लगा जाना, साफ-साफ बता देना।

यदि मैं भाग सकती, तो भाग निकली होती और सब-कुछ त्यागकर फकीरी वेश अपना लिया होता। लेकिन मैं भाग भी तो  नहीं सकती, क्योंकि प्रेम की दुहरी, तिहरी, चौहरी जंजीर मेरे गले में पडी है। जो गिरफ्तार है, वह कैसे भाग सकता है।

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