Monday 29 October 2012

दुजे खंडे तरी। उरला तो अवघा हरि।


दुजे खंडे तरी। उरला तो अवघा हरि। आपणाबाहेरी। नलगे ठाव धुंडावा॥
इतुले जाणावया जाणा। कोड तरी मने मना। पारधीच्या खुणा। जाणतेणेचि साधाव्या॥
देह आधी काय खरा। देहसंबंधपसारा। बुजगावणे चोरा। रक्षणसे भासते॥
तुका करी जागा। नको वासंपू वाउगा। आहेसि तू अंगा। अंगी उघडी डोळा॥


द्वैत जब समाप्त हो जाता है तब अवशेष रहता है हरि। उसे ढूंढने के लिए अपने बाहर जाने की आवश्यकता नहीं। इतना ही जानना हो अगर तो मन से मन को जानना। शिकारी का फैलाया जाल जिस प्रकार एक शिकारी ही पहचानता है। पहले तो देह सत्य नहीं। फिर देह संबंधी स्त्री, पुत्र इत्यादी कैसे सत्य होंगे? खेत में खडा हौआ जैसे चोरों को डराकर खेतकी रक्षा करता है वैसे ही यह देह है। तुका जगा रहा है, व्यर्थ घबराओ नहीं। यह शरीर परमात्मरूपी ही है, केवल अपने इस अंग की आत्मिक दृष्टी खोल कर देख।

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