रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई।
सद्दी मैनूं धीदो रांझा हीर न आखो कोई।
रांझा मैं विच, मैं रांझे विच गैर खिआल न
कोई
मैं नाहीं ओह आप है अपणी आप करे दिलजोई
जो कुछ साडे अन्दर वस्से जात असाडी सोई
जिस दे नाल मैं न्योंह लगाया ओही जैसी होई
चिट्टी चादर लाह सुट कुडिये, पहन फकीरां
दी लोई
चिट्टी चादर दाग लगेसी, लोई दाग न कोई
तख्त हजारे लै चल बुल्ल्हिआ, स्याली मिले
न ढोई
रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होई।
मुर्शिद (सद्गुरु) परमात्मा-स्वरूप होता
है। मुर्शिद में अभेदता परमात्मा की अभेदता में बदल जाती है। इस अभेदता मे6 शिष्य
अपना अस्तित्व ही भूल जाता है। सद्गुरू की आत्मा के रंग में रंग जाने की अवस्था का
वर्णन इस काफी में करते हुए कहा गया है कि ‘रांझा-रांझा’ कहती कहती मैं स्वयं ही
रांझा हो गई हूँ। अब मुझे सब कोई ‘रांझा’ के नाम से पुकारो। मुझे हीर न कहो।
अब तो एकात्म-अभेद की स्थिति यह कि रांझा
मेरे अन्दर है, मैं रांझे के अन्दर हूँ और हम एक-दूसरे से अलग नहीं हैं। अब मैं तो
रह ही नहीं गई, जो कुछ भी है, वह स्वयं ही है और आत्म-आनन्द की तुष्टि के लिए वही
अपनी दिलजोई स्वयं करता है।
जो हमारे अन्दर बस रहा है, अब तो वही
हमारी जात है। अब तो हालत यह है कि जिसके साथ हमने प्रेम किया है, हम उसी जैसे हो
गए हैं।
अरी लडकी, उतार फेंक यह सफेद चादर और पहन
ले फकीरों की लोई। सफेद चादर में तो दाग लग जाएगा, लेकिन फकीरी लोई में कोई दाग
नहीं लगता।
बुल्लेशाह कहते हैं कि हमें तख्त हजारे,
यानि रांझे के गाँव, ले चलो, क्योंकि स्याल, यानि हीर के गाँव में, हमारा ठिकाना
नहीं है, क्योंकि रांझा रांझा कहती-कहती, मैं स्वयं रांझा हो गई हूँ।
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